क्यों हुई इतनी बड़ी चूक : गोरक्षा महा आन्दोलन

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HnExpress सीताराम अग्रवाल, कोलकाता : परम श्रद्धेय स्वामी करपात्री जी महाराज की अगुवाई में 7 नवम्बर 1966 को लाखों गोभक्तों ने गो हत्या बंद करने के लिए कानून बनाने के समर्थन में दिल्ली में संसद के समक्ष प्रदर्शन किया था। उस समय केन्द्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी। उस दिन गोरक्षा अभियान में शामिल लोगों ने पुलिस की गोलियों से जान गंवायी थी। साधू- संतों को जेल में ठूंस दिया गया था, जिनमें करपात्री जी महाराज भी शामिल थे।

इन्हीं स्वामीजी की प्रेरणा से सन्मार्ग समाचारपत्र की स्थापना हुई थी, जिसका मूल उद्देश्य ही सनातन धर्म की रक्षा करना था। कभी झोला में बिकने वाला यह हिन्दी अखबार पिछ्ले कुछ दशकों से प. बंगाल में लोकप्रियता के शीर्ष पर है। पर दुख की बात है कि गोरक्षा के उस ऐतिहासिक महाअभियान व करपात्री जी महाराज के बारे में कल एक लाइन भी इस पत्र में न छपना क्या उचित है ? ज्ञातव्य है कि हाल ही में गोपाष्टमी पर्व मनाया गया।



बड़े-बड़े विज्ञापन छाप कर सन्मार्ग ने पैसे भी कमाये। इसके कर्ताधर्ता विवेक गुप्त ने गोपाष्टमी मेले में जाकर उसका उद्घाटन किया। गोरक्षा के बारे में अच्छी -अच्छी बातें कहीं। अपने ही अखबार में (2 नवम्बर 2022 को ) गउ माता को नमन करते हुए अपनी फोटू भी छापी। पर आश्चर्य की बात है कि मात्र 5 दिन बाद ही 7 नवम्बर को गौरक्षा महाअभियान की तिथि व इस अभियान व सन्मार्ग के भी प्रणेता करपात्री जी महाराज के बारे में कुछ भी छापना भूल गये।

विवेक जी मेरा उद्देश्य आपकी छवि धूमिल करना नहीं बल्कि उन सभी तथ्यों की ओर ध्यान आकृष्ट कराना है, जिससे सन्मार्ग की छवि धूमिल होती हो। मैंने अतीत में भी किया है और आगे भी करता रहूंगा। इसका सबसे बड़ा कारण है मेरे जीवन का अधिकांश सन्मार्ग में पत्रकारिता करते हुए बीता है। मैंने वह पीड़ा महसूस की है, जब रिपोर्टिग करते हुए मुझे बंगलाभाषी अधिकारियों को सन्मार्ग नाम 3-4 बार बोलना पड़ता था। वे पूछते थे- कोथाय थेके बोलचेन।

मैं कहता – सन्मार्ग थेके। वे फिर पूछते- कि बोललेन ‘संवाद’। मैं कहता- संवाद ना सन्मार्ग। ‘संवाद’ से ‘ सन्मार्ग ‘ तक का सफर मैंने तय किया है। इस कठोर परिश्रम से मुझे गुजरना पड़ा है। उस समय आपका जन्म भी नहीं हुआ था। खुशी की बात है कि आज हर अधिकारी की जबान पर सन्मार्ग का नाम है। निश्चित रूप से इसका सारा श्रेय आपके दादाजी श्रद्धेय राम अवतार गुप्त (अब स्वर्गीय ) तथा उनके नेतृत्व में सन्मार्ग की पूरी टीम को जाता है, जिसका एक हिस्सा मैं भी था।

(इस बारे में विस्तार से फिर कभी)। एक बात और। आपके दादाजी के जमाने में कभी भी इस समाचारपत्र की राजनीतिक निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठा, पर आज जब बाजार में सुनाई पड़ता है कि सन्मार्ग तो अमुक पार्टी का पेपर हो गया है (भले ही ऐसा न हो) तो तकलीफ होती है। यह ध्रुव सत्य है कि यदि किसी भी अखबार पर किसी भी राजनीतिक पार्टी का लेबल लग जाता है तो उसकी साख चली जाती है और धीरे-धीरे वह आम जनता से दूर हो जाता है। विवेक जी आप सांसद रह चुके हैं और अभी विधायक हैं।



जन प्रतिनिधि होने के नाते समाज व देश की दशा सुधारने व उसे दिशा देने का गुरूतर भार आपके कधों पर है। साथ ही एक लोकप्रिय समाचारपत्र का कर्ता-धर्ता भी होने के नाते आप पर दोहरी जिम्मेदारी है। हालांकि दोनों के बीच सामंजस्यता और निष्पक्षता बनाये रखना दुरूह है, पर करना तो पड़ेगा ही , क्योंकि इसमें चूक हुई तो परिणाम दुखद हो सकता है।

खैर आप समझदार है पर हो सकता है, अनुभव की कमी कभी बात बिगाड़ दे। आपसे यह जरूर कहना चाहूँगा कि ” चमचों ” से सावधान रहियेगा, क्योंकि ये दीमक के अलावा मीठा जहर भी हैं, जो किसी भी प्रतिष्ठित व्यक्ति, संस्थान, प्रतिष्ठान वगैरह कोचठ खोखला कर काल कवलित कर देते हैं। और आप तो भुक्तभोगी हैं। समझदार को इशारा ही काफी हैं। सजग रहेंगे तो सदैव खुश रहेंगे, अन्यथा।

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